थी तो वो गर्मी की सुबह पर गर्माहट के नितांत अभाव के साथ। अचरज तो था इतना शीतल नमीयुक्त हवाओं का यह सुखद वातावरण आखिर पुरबइया हवा ने अधीरता और छटपटाहट के निर्वात को भर जो दिया था। 5-6 दिन पहले यह वातावरण गर्माहट से ओतप्रोत तो था और पछिया की शुष्कता ने इसे और भी असहनीय बना रखा था। पर सुख का भी मूल्य होता है जो यह प्रकृति 3-4 दिन पहले अंधर – तूफान ला कर, फसलों, घरोंदों, यहाँ तक की जीवन लीला को नष्टभ्रष्ट कर वसूल चुकी है।
सुबह की इस शीतलता भरी हवा ने, कपोल कल्पित सपनों मे डूबे इस मन और आलस्य मे विभोर इस शरीर को, आज तो न ही जागा रही थी और न ही इस निष्प्राण से शरीर मे ऊर्जा का संचरण कर रही थी। ऊँघती सी नींद के नशे मे मतवाली ये अधखुली आँखे आज पूर्णरूपेण जागृत होने के लिए जूझ रही थी। पर मानो आज ये किसान आलसी प्रतीत हो रहा है ठीक प्रेमचंद के पुस की रात के नायक की भाँति।
पर...
अरे भई पर क्या????
अभी कुछ दिन पहले अपने लहलहाते खेतों, आम के टिकलों से भरे पूरे आम के बागानो को दिखला कर अपने सामर्थ्य पर इतराने वाला यह किसान जो कर्म का प्रतीक है वह आज इतना निरीह लाचार और किंकर्तव्यविमूढ़ सा मृत शैय्या पर लेटे शव और गधे सा शांत क्यों प्रतीत हो रहा है।
आखिर क्यों???????
अरे भई शांत दिखने का प्रयास कर रहा हूँ।
शांत दिखने का प्रयास?????? क्यों भई किसी पर क्रोधित हो क्या?
बस अब बंद करो बहुत प्रश्न पूछ चुके अब और नहीं !!!!!!!!
पर उत्तर ??????
उत्तर भी तो दुविधायुक्त है। क्रोधित तो हूँ पर किस पर क्रोध करूँ?
प्रकृति पर - जिसने मेरे सपनों को धूल बना कर उड़ा दिया। मानवीय सामर्थ्य को उसकी औकात यानि सीमा दिखा दी।
या भाग्य पर - जिसे कोस कोस कर मनुष्य आज तक संतुष्टि और गधे सा शांत दिखने का स्वांग रचता आया है, यह जानते हुये भी की उचित दृष्टिकोण युक्त कर्म की समाधान है।
या स्वंयम पर - हम्मम्म!!!!!!!!
हाँ! हाँ!, खुद पर क्रोध कर सकता हूँ। आखिर मनुष्य जाति का हूँ अपने जातीय दायित्व की थोड़ी जिम्मेदारी तो ले ही सकता हूँ। पर ज्यादा नहीं क्योकि हमे तो धर्मों के तुलनात्मक अध्यन को शिक्षाप्रणाली के अंकतालिका या व्यवसायिक घरानो के बैलेन्सशीट जैसे प्रस्तुत करने से या अन्य विनाश की ओर अग्रसर विकास से फुर्सत मिले तब तो।
वैसे भी ये खुद पर क्रोध भविष्य मे प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन से रोकेगा तो सही। यही क्रोध इक दिन जुनून मे बदल कर नए सामर्थ्य को जन्म देगा और ये नया सामर्थ्य प्रकृति से एक नए युद्ध को......
अरे! अरे! नहीं! नहीं! भई अपने कथन को पलटो नहीं ।
अरे भई कैसे नहीं पलटूँ कुछ स्वार्थ सिद्ध करने हैं। पर.....................
सवाल ज्वलंत हैं
आखिर कब तक ????????
प्रधानता किसकी???????- धर्म, निजी स्वार्थ आदि जैसे कम गंभीर मुद्दे या भूमंडलीय पर्यावरण से संबंधित गंभीर समस्याओं वाले मुद्दे।
जरूरत किसकी????????- प्रकृति से युद्ध की या प्रकृति के साथ चलने की
और अंत मे साहित्य से उधृत कुछ पंक्तियाँ।
वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो,
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो,
लेकिन अचरज इतना तुम कितने भोले हो,
ऊपर से ठोस दिखो, अंदर से पोले हो,
बन कर मिट जाने की एक तूम कहानी हो।
वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो,
जवाब देंहटाएंतुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो,
लेकिन अचरज इतना तुम कितने भोले हो,
ऊपर से ठोस दिखो, अंदर से पोले हो,
बन कर मिट जाने की एक तूम कहानी हो
-बहुत सुन्दर पंक्तियाँ लाये!!