गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

महामूर्खराज का दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र क्या है मात्र सिद्धांतों का एक पुलिंदा या और कुछ ?
वास्तव मे यह प्रश्न अपने आप मे बहुत ही गंभीर और सारगर्भित है । यह तो पता नहीं मैं इस प्रश्न का कितना उचित और सरगर्भित उत्तर दे पाऊँगा । मैंने अपने जीवन मे इस शास्त्र को अपने लघु अध्यन और लघु अनुभव से जितना समझा है बस आप लोगों के साथ बाँटना चाहता हूँ बस एक उम्मीद है की आपके सहमति और असहमति तथा मार्गदर्शन के आधार पर एक नए  दृष्टिकोण  से इस प्रश्न का एक नया उत्तर पाऊँ और अपने इस लघु ज्ञान और लघु अनुभव को एक छोटा सा विस्तार दूँ ।
मैंने तो सिर्फ इतना जाना है की स्वंयम मनुष्य ही एक चलता फिरता दर्शनशास्त्र है इसको अगर जानना है तो
खुद को जानो दूसरों को क्या जानना। जब  खुद के भीतर ही इतने दुवन्द, इतने विवाद है तो दूसरों के द्वंदों और विवादों का समाधान क्यूँ खोजता है पहले खुद के समाधान तो ढूंढ ले। पहले खुद को पहचान तब खुदा को पहचानना ।
दूसरो से या दूसरों की बात क्या करते हो पहले खुद से या खुद की बात कर ले । जिन शास्त्रों के ज्ञान और विधा का तू दंभ और हुंकार भरता है । पर तू तो उन शास्त्रो का  अतिशय अज्ञानी है ।
शास्त्र वचन तो कहते है - विधया ददाती विनयम। (विधया विनम्रता प्रदान करती है।) तो अपनी कटुता का गौरवशाली प्रदर्शन क्यों तू करता है।
दंभ मे कहता तू दर्शन तो मात्र सिद्धांतों का पुलिंदा है पर मैं तुझ से क्या कहूँ खुद को कहता हूँ बिना प्रयोग के, अनुसंरण के दर्शन को सिद्धांतों का पुलिंदा कैसे कह दूँ।

थाम कर हाथों मे कलम की तलवार, बना नम्रता को अपना  ढाल
हो सवार कर्म के रथ पर बना परमात्मा को सारथी अपना
कूद पड़ जीवन के इस महाभारत मे,  बढ़ता चल
रह के विवादो से परे
सोचता था लाऊँगा एक नया तूफ़ान पर क्या लाऊँ
 जब खुद जीवन ही है एक तूफ़ान 
सिर्फ एक आस है हो परमात्मा से मिलन।
 बस यही है इस महामूर्खराज का दर्शनशास्त्र ।

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