गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

किताबों भरी संदूकची महामूर्खराज के हाथ लगा साहित्यिक खजाना

गर्मी अपने चरम पर जैसे पहुँचने लगी है। दोपहर के भोजन के भोजन के पश्चात इस गर्मी और थकावट से निजात पाने के लिए अभी लेटा ही था की मेरे नौकर लक्षमी ने आ कर कहा मालिक आज ऊपर वाले स्टोर की सफाई कर रहा था तो एक पुरानी  संदूची मिली है जो  कागजो और किताबों से भरी पड़ी है और उसमे दीमक भी लगी हुई है एक बार देख लेते तो अच्छा होता शायद कोई काम के कागजात भी उसमे हों।

किताबें! बरबस मेरे मुख से निकाल पड़ा । उधर से जबाब आया - जी मालिक ।

मैं हरबड़ा के उठा और और छत की ओर दौड़ा। लक्षमी विस्मित नज़रों से मुझे देख रहा था। मेरी इस हरबड़ाहट को देख मेरी दादीअम्मा ने कुछ कटु अंदाज अंदाज़ मे कहा क्यूँ रे लक्षमी तू ने लल्ला से ऐसा क्या कह दिया जो वह इतनी धूप मे छत की और जा रहा है । भय से क्लांत लक्षमी जजी... वो... से अधिक कुछ कह नहीं पाया उधर दादीअम्मा भी लल्ला सुन तो .... कहती हुई मेरे पीछे हो ली । एक तरफ मैं किताबों के प्रेम मे वशीभूत था दूसरी तरफ दादीअम्मा मेरे । सच ही कहा जाता है मूल से ब्याज प्यारा होता है।

मेरे इस उतावलेपन का राज असल मे मेरे प्रपितामह(दादा जी के पिता) का साहित्य प्रेम था। उनके पास इस प्रकार की पुस्तकों का अच्छा ख़ासा संग्रह भी था चूंकि हमारा यह पैतृक निवास पिताजी के फारबिसगंज रहने के कारण बीस वर्षों तक वीरान रहा तो वह सारा संग्रह देखभाल के अभाव मे दीमकों ने चट कर दिया था। शायद इनमे उस साहित्यिक संपदा का का जीवित भाग मिल जाए यह सोच कर मैं और अधीर हो था और यह स्टोर भी हमारे यहाँ आने के बाद आज पहली बार खुला था तो इस बात की पूरी संभावना थी। उस चक्रवाती तूफान को धन्यवाद जिसकी बजह से यह कमरा खुला। 

जैसे ही मैंने संदूकची को पलटा मेरी आखें फटी की फटी रह गयी। वह संभावना सत्य मे तब्दील हो गयी। मैं बस अब उन्हे अपने हाथों से झाड़ता जा रहा था और जवित बची उन संपदाओं को छांट कर अलग कर रहा था। हालांकि उनमे से आधे से अधिक नष्ट हो चुकी है फिर भी करीब 70 - 80 किताबें जीवित है । जो की मेरे लिए एक अमूल्य सम्पदा है।

अब सोच रहा हूँ की घर मे एक  छोटा सा पुस्तकालय बना कर इन्हें संरक्षित करूँ । गाँव मे पुस्तकालय तो है नहीं और अच्छी साहित्यिक कृतियाँ भी दुकानों मे मिलती नहीं जो खरीद के पढ़ लूँ। पर कहते हैं न ऊपर वाला जब भी देता देता छप्पर फाड़ कर। यह पुस्तकालय व्यक्तिगत कम सार्वजनिक रहेगा ताकि ग्रामीण साहित्य प्रेमी भी इसका लाभ उठा सकें। अपने महानगरीय भ्रमण के के दौरान नयी कृतियों को खरीद कर इसका विस्तार भी करूँगा। कुछ समय निकाल कर इन्हें डिजिटल फ़ारमैट मे तब्दील करने का भी प्रयास रहेगा ताकि ये लंबे समय तक संरक्षित रहें।

कुछ किताबों का विवरण इस प्रकार से है

1. सामर्थ्य और सीमा (उपन्यास) भगवती चरण वर्मा राजकमल प्रकाशन 1962

2. लाल पसीना(उपन्यास) अभिमन्यु अनत राजकमल प्रकाशन 1977

3. आधा गाँव (उपन्यास) राही मासूम रजा राजकमल प्रकाशन1966

4. चिलमन(कहानी संग्रह) बलवंत सिंह राजकमल प्रकाशन 1970

5. पचपन खंभे लाल दीवारें(उपन्यास) उषा प्रियंवदा राजकमल प्रकाशन 1972

6। बादशाह गुलाम बेगम(एकाँकी संग्रह) गिरिराज किशोर राजकमल प्रकाशन 1979

7. जीप पर सवार इल्लियाँ (व्यंग संग्रह) शरद जोशी राजकमल प्रकाशन 1971 

समय का अभाव है शेष किताबों का विवरण बाद मे दूंगा।

एक सूचना :- अबसे हर हफ्ते रविवार को "महामूर्खराज की पुस्तकालय से" शीर्षक पोस्ट के दुवारा इस साहित्य सम्पदा से एक पोस्ट मे समा जाने वाली साइज की कृतियाँ प्रकाशित करूँगा ताकि इस साहित्यि आनंद को आपके साथ भी बाँट सकूँ। पोस्ट की कोमन शीर्षक के साथ कृती का शीर्षक भी जुड़ा होगा।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

महामूर्खराज खुश हुआ... यययायाया........ हू

तुम लौट आयी,

दूर हुआ हलाहल अंधेरा,

रोशनी की  चकाचौंध देख,

भाई ये दिल मेरा, 

गार्डेन गार्डेन हुआ,

विरह पीड़ा तो,

थी दिल मे,

पर तेरी भी,

अपनी मजबूरी थी,

प्रकृति के तूफ़ान ने,

रोके थे तेरे कदम,

पर आठवें दिन तेरा,

आ जाना भी,

किसी अष्टम अचरज,

से ना है कम,

संयोग भी क्या गज़ब है,

तेरे आगमन का,

इक तरफ मुख्यमंत्री जी,

पधारे ब्लोगजगत मा,

दुजी तरफ बिजलीरानी,

पधारी तू हमरे गाम मा,

(गाम = गाँव)

चक्रवाती तूफान को आए आठ दिन बीत गए। बिजली के खंभे टूट गए थे, पर आज व्यवस्था दुरुस्त हुई बिजली रानी झलक दिखला कर चली गयी पर उम्मीद है............................

अरे भाई विश्वास है की ये चंचला चपला अब बराबर झलक दिखलाती रहेगी।

भाई खुशी के मारे भावनाओं का समुद्र उमड़ पड़ा है बस आपके साथ मिल कर खुशियाँ मनाना चाहता हूँ।

एक पुरानी कहावत  

बिन पानी सब सून

पर महामूर्खराज उवाच:

बिन बिजली पानी सब सून

मुख्यमंत्री जी आप भी ब्लॉगर बन गए वाह भाई वाह!

इस ब्लोगजगत का इंद्रजाल वास्तव मे जबरजस्त है हर किसी को अपने मोहपाश मे बांध लेता है शुरुआत मे राजनीतिज्ञ लोग इससे डरते थे पर अब देखिए वे ही इसके साथ जुड़ने लगे हैं, फेहरिस्त मे नए शामिल होने वाले और मेरे प्रिय व आदर्श  और कोई नहीं वरन बिहार के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार जी हैं। ब्लोगजगत मे आपका स्वागत है साथ ही शुभकामनाएँ।

ब्लॉग का पता – nitishspeaks.blogspot.com (नाम पर क्लिक कर के ब्लॉग पर पहुँच सकते है)

ब्लॉग की देख रेख भजापा के विधान पार्षद श्री संजय झा कर रहे हैं।

मुख्यमंत्री जी चुनिदा टिप्पणियों पर अपनी राय भी देंगें।

पहली पोस्ट - मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना पर आधारित है

सौजन्य  :- हिन्दुस्तान (हिन्दी दैनिक) दिनांक 20/4/2010/

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

सामर्थ्य, सीमा और सवाल

थी तो वो गर्मी की सुबह पर गर्माहट के नितांत अभाव के साथ। अचरज तो था इतना शीतल नमीयुक्त हवाओं का यह सुखद वातावरण आखिर पुरबइया हवा ने अधीरता और छटपटाहट के निर्वात को भर जो दिया था। 5-6 दिन पहले यह वातावरण गर्माहट से ओतप्रोत तो था और पछिया की शुष्कता ने इसे और भी असहनीय बना रखा था। पर सुख का भी मूल्य होता है जो यह प्रकृति 3-4 दिन पहले अंधर – तूफान ला कर, फसलों, घरोंदों, यहाँ तक की जीवन लीला को नष्टभ्रष्ट कर वसूल चुकी है।

सुबह की इस शीतलता भरी हवा ने, कपोल कल्पित सपनों मे डूबे इस मन और आलस्य मे विभोर इस शरीर को, आज तो न ही जागा रही थी और न ही इस निष्प्राण से शरीर मे ऊर्जा का संचरण कर रही थी। ऊँघती सी नींद के नशे मे मतवाली ये अधखुली आँखे आज पूर्णरूपेण जागृत होने के लिए जूझ रही थी। पर मानो आज ये किसान आलसी प्रतीत हो रहा है ठीक प्रेमचंद के पुस की रात के नायक की भाँति।

पर...

अरे भई पर क्या????

अभी कुछ दिन पहले अपने लहलहाते खेतों, आम के टिकलों से भरे पूरे आम के बागानो को दिखला कर अपने सामर्थ्य पर इतराने वाला यह किसान जो कर्म का प्रतीक है वह आज इतना निरीह लाचार और किंकर्तव्यविमूढ़ सा मृत शैय्या पर लेटे शव और गधे सा शांत क्यों प्रतीत हो रहा है।

आखिर क्यों???????

अरे भई शांत दिखने का प्रयास कर रहा हूँ।

शांत दिखने का प्रयास?????? क्यों भई किसी पर क्रोधित  हो क्या?

बस अब बंद करो बहुत प्रश्न पूछ चुके अब और नहीं !!!!!!!!

पर उत्तर ??????

उत्तर भी तो दुविधायुक्त है। क्रोधित तो हूँ पर किस पर क्रोध करूँ?

प्रकृति पर - जिसने मेरे सपनों को धूल बना कर उड़ा दिया। मानवीय सामर्थ्य को उसकी औकात यानि सीमा दिखा दी।

या भाग्य पर - जिसे कोस कोस कर मनुष्य आज तक संतुष्टि और गधे सा शांत दिखने का स्वांग रचता आया है, यह जानते हुये भी की उचित दृष्टिकोण युक्त कर्म की समाधान है।

या स्वंयम पर - हम्मम्म!!!!!!!!

हाँ! हाँ!,  खुद पर क्रोध कर सकता हूँ। आखिर मनुष्य जाति का हूँ अपने जातीय दायित्व की थोड़ी जिम्मेदारी तो ले ही  सकता हूँ। पर ज्यादा नहीं क्योकि हमे तो धर्मों के तुलनात्मक अध्यन को शिक्षाप्रणाली के अंकतालिका या व्यवसायिक घरानो के बैलेन्सशीट जैसे प्रस्तुत करने से या अन्य विनाश की ओर अग्रसर विकास से फुर्सत मिले तब तो।

वैसे भी ये खुद पर क्रोध भविष्य मे प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन से रोकेगा तो सही। यही क्रोध इक दिन जुनून मे बदल कर नए सामर्थ्य को जन्म देगा और ये नया सामर्थ्य प्रकृति से एक नए युद्ध को......

अरे! अरे! नहीं! नहीं! भई अपने कथन को पलटो नहीं ।

अरे भई कैसे नहीं पलटूँ  कुछ स्वार्थ सिद्ध करने हैं। पर..................... 

सवाल ज्वलंत  हैं 

आखिर कब तक ????????

प्रधानता किसकी???????- धर्म, निजी स्वार्थ आदि जैसे कम गंभीर मुद्दे या भूमंडलीय पर्यावरण से संबंधित गंभीर समस्याओं वाले मुद्दे।

जरूरत किसकी????????- प्रकृति से युद्ध की या प्रकृति के साथ चलने की

  और अंत मे साहित्य से उधृत कुछ पंक्तियाँ।

वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो,

तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो,

लेकिन अचरज इतना तुम कितने भोले हो,

ऊपर से ठोस दिखो, अंदर से पोले हो,

बन कर मिट जाने की एक तूम कहानी हो।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

पिछले 4 दिन खुशियाँ कम गम ज्यादा

 

पिछले 4 दिनों मे जो हुआ शायद मेरे जीवन के सबसे कठिनतम पलों मे था। अपनी आँखों से टुकुर टुकुर सपनों के उन हवाई महलों को ध्वस्त होते देखता रहा। कई बार पहले भी ऐसा हो चुका है पर फर्क सिर्फ इतना है इस बार जाग रहा था और पहले नींद  मे रहता था।

14 अप्रैल रात के करीब 10 बजे अचानक से तेज हवाएँ चलने लगी साथ मे बिजली भी चमक रही थी। मैं और पिताजी तेजी से गुहाली (गाय को रखने की जगह)  की तरफ भागे कारण वहाँ जल रहा घूरा था। जिसके धुए से मच्छरों को गायों से दूर रखा जाता है कहीं तेज हवाओं की वजह से आग की भयावह लपटो न मे न तब्दील हो जाए। जैसे ही वहाँ पहुँच कर हमने उसे बुझाया तेज़ बारिश भी शुरू हो गयी और साथ मे ओले भी। इस  आँधी और बारिश के कारण तनाव का दौर भी शुरू हो गया।

भई कल ही गेहूँ काटना शुरू किया था जो भी कटा उसे खेत मे ही छोड़ कर आए थे की कटाई जब पूरी हो जाएगी तो एक साथ बोझे बना कर लाना आसान होगा और पिछले कई दिनो से मौसम भी शुष्क ही था इस बिन बुलाई बारिश की तो कोई आशंका ही न थी। 70% फसल तो नष्ट हुई ही साथ मे आम और लीची की फसल भी बर्बाद हो गयी । काम संभालने के बाद जीवन मे पहली बार इतना नुकसान हुआ है। पर अखबारों से दूसरे लोगों की क्षति का जो विवरण मिला तो अब लगता है की मेरी क्षति उनके आगे बहुत तुच्छ है।

झटका तो लगना स्वाभाविक है पर भई किसान हूँ हाथ पर हाथ धर कर तो नहीं बैठ सकता सो मूंग की फसल बोने की तैयारी शुरू कर दी है वैसे भी बिना असफलता के सफलता तो मिलती नहीं। दूसरा गम बिजली मोबाइल और इंटरनेट नेटवर्क के बाधित होने  के कारण उत्पन हुआ। नेटवर्क तो आज ठीक हो गया है पता नहीं बिजली कब आएगी। वो तो भला हो मेरे पड़ोसी का जो उसके जेनरेटर से मोबाइल और लैपटाप चार्ज हो रहा है।

अब और क्या कहूँ बस गम ज्यादा है खुशी कम है पर हौसले बुलंद है। एक न एक दिन खुशियाँ भी ज्यादा होंगी।  

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

ब्लॉग कई पर रचना एक

वाह कैसा अदभुत है ब्लोगजगत

तेरा यह इंद्रजाल,

लड्डू बोलता इंजीनियर के
दिल से
जहाँ और

डॉ॰ जमाल  पढ़ते

वेदकुरान,

करते  हैं गिरि जी

काम की बकवास,  अजी

नाइस नाइस की टिप्पणियों

के साथ सुमन जी

निकालते अपनी भड़ास,

पर सतीश सक्सेना जी कहते

लाइटली ले यार और सुन मेरे गीत,

प्रतुल जी सुनाते  इक

रामकहानी नई यार, और

चुटकी लेते नारदमुनी जी,

मेरा समस्त देता कृषि और

आयुर्वेद का ज्ञान,

महामूर्खराज की कलम से लिखता

मैं मूर्खता के नए ज्ञान

उड़न तश्तरी उड़ते इसके गगन मे

विजयप्रकाश जी सुनाते आपकी-हमारी

कुछ नई कुछ पुरानी कहानियाँ  

हाँ है यहाँ द्वंद ओ विवाद नए पुराने

होता इक नए महाभारत का शंखनाद

रोज यहाँ शीतयुध भी होता गुलजार

पर फिर भी मेरे यार!

ये ब्लॉगजगत हमारी अंजुमन है

है ये आधारशिला हमारे लोक संघर्ष की

है हमारा साझा  सरोकार और

बहाता प्रेम का निर्झरनीर

यह प्रस्तुति प्रतुल कहानिवाला जी के अन....ओ....खा...पन के नाम

दोस्तों आज तक ज़िंदगी मे सिर्फ कविताएँ पढ़ी है लिखी नहीं है बस आज एक कोशिश की है पता नहीं यह प्रस्तुति कविता की परिभाषा पर खरी उतरती भी की है नहीं। विजयप्रकाश जी और उड़ान तश्तरी जी के आदेशानुसार अभ्यासरत हूँ आध्यानरत हूँ बस इक उम्मीद के साथ की एक दिन कुछ बेहतर लिख पाऊँगा ।

इस प्रस्तुति मैंने जिन ब्लोगों के नाम प्रयुक्त किए है उनके खाताधारकों से अनुमति प्राप्त नहीं की है इसके लिए क्षमा याचना।

प्रयोग किए गए हर ब्लॉग का नाम उसके वेब एड्रैस से जोड़ा हुआ है बस नाम पर क्लिक कीजिये और उस ब्लॉग का आनंद लीजिए।

यह कोई प्रचार प्रसार की कोशिश नहीं है वरन अलग अलग तरह के ब्लॉगों को एक साथ जोड़ कर प्रेम और एकता का संदेश देने की मेरी एक छोटी सी कोशिश मात्र है।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

है दम तो इस महामूर्खराज पर कटु टिप्पणी कर के दिखा...........

P1004080612010

वैसे आज सोच रहा था की मैं आज अपने पाठकों का दिल से आदर करूँ । जो अग्रज हैं उन्हें इस महामूर्खराज का सादर चरणस्पर्श। जो बराबर वाले है उन्हें नमस्कार और छोटों को स्नेह।

P1004080612404

अब आप बोलेंगे भई महामूर्खराज भला ये क्या बात हुई शीर्षक शेर के समान गर्जना और पोस्ट भीगी बिल्ली सी म्याऊँ म्याऊँ !  भई डर गए क्या।

महामूर्खराज उवाचः - भैया मेरे, मैं न तो किसी को डराता हूँ ना ही किसी से डरता हूँ हाँ ये और बात है की  इसमे ईश्वर अपवाद है क्योकि बस उनसे ही डरता हूँ। मैंने तो मात्र शब्दो का जाल बुन कर बिछाया है की जिसमे फंस कर आप यहाँ तशरीफ़ लाये और इस महामूर्खराज की विनती सुने

हाँ तो मुद्दे की बात यह है की मैं आप लोगों की प्रशंसा भरी, आवेदन भरी और हौसला अफजाई वाली टिप्पणिया पढ़ पढ़ कर काफी बोर हो चुका हूँ

अमा यार कैसी कैसी टिप्पणिया करते हो खुद ही पढ़ लो कुछ नीचे लिख दी है

"अब तूफान लाईये",  "वाह..... बढ़िया" , "nice", “रचना की तारीफ करनी होगी।”,  “बाबा महामूर्खराज की जय हो ! जय हो !”, “हमें तो "दर्शन" पढ़ने का चाव है इस विषय में भी कुछ कहियेगा तो अच्छा लगेगा”। "जय हो आपकी उत्पत्ति कब हो गई गुरुदेव"। "जय हो बाबा जी की! वैसे आजकल बाबाओं की ग्रहदशा कुछ ठीक नहीं चल रही :-)"

कुछ लोग तो कहते है "चिट्ठे की सार्थकता को बनाये रखें"। पर भैया मेरे! पोस्ट के साथ साथ टिप्पणियों की सार्थकता बनाए रखेगे ये लिखने के लिए शब्द कम और इसके अनुसरण के लिए क्या समय कम पड़ गया था। क्या यह हमारी आपकी जिम्मेदारी नहीं है।

मैं तो ब्लोगजगत और लेखनकला दोनों मे ही नया हूँ या यूँ समझये की एक नवजात शिशु की भाँति अबोध हूँ। जब इस ब्लॉग जगत मे प्रवेश किया तो उम्मीद नहीं की थी की मेरी पहली पोस्ट को 17 टिप्पणियाँ मिलेंगी और लोग बाहें फैला कर मेरा स्वागत करेंगे साथ ही कोई मेरा अनुसरणकर्ता भी बनेगा, आपसबों के इस प्रेम के आगे सदैव नतमस्तक रहूँगा।

बस एक विनती है की दिल खोल कर मेरी निंदा कीजिये क्योंकि आज तक सिर्फ पठन मे ही साहित्य से मेरा रिश्ता रहा है लेखनकला की शैलियों और उनके साहित्यिक नियमो से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ अतः उन्हें सीखना चाहता हूँ अध्यन तो कर रहा हूँ पर प्रायोगिक दृष्टिकोण से आपकी सीख भरी निंदा  अधिक कारगर होगी।

निंदा कटु हो पर सयंमित शब्दों से सजी हो तो भी मुझे पसंद आएगी और यदि असंयमित शब्दो से भी सजी होंगी तो भी  ग्रहण करने योग्य भाव को अपना लूँगा। शेष भाव को बिना कुछ कहे बिना कुछ लिखे मेरे शब्दो द्वारा आपके हृदय को पहुँचाई गई चोट मान कर आप से क्षमा माँग लूँगा यदि आप दंड देना चाहें तो आपका हर दंड  बिना किसी किन्तु परंतु के स्वीकार्य होगा। बस यही विनती है मेरी निंदा करते रहे करते रहे और मुझे प्रगति के पथ पर अग्रसर होने का अवसर प्राप्त होता रहे।

यह मात्र एक विनती नहीं वरन जीवनदर्शन का सार भी है।

भई अब इससे बड़ा तूफान लाना मेरे बस मे नहीं है।

दम है तो इस महामूर्खराज पर कटु टिप्पणी कर के दिखाओ  ...................

ॐ शांति। पर .....................................  आप समझ तो गए ही होंगे।

 जय हो! जय हो!

महामूर्खराज का दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र क्या है मात्र सिद्धांतों का एक पुलिंदा या और कुछ ?
वास्तव मे यह प्रश्न अपने आप मे बहुत ही गंभीर और सारगर्भित है । यह तो पता नहीं मैं इस प्रश्न का कितना उचित और सरगर्भित उत्तर दे पाऊँगा । मैंने अपने जीवन मे इस शास्त्र को अपने लघु अध्यन और लघु अनुभव से जितना समझा है बस आप लोगों के साथ बाँटना चाहता हूँ बस एक उम्मीद है की आपके सहमति और असहमति तथा मार्गदर्शन के आधार पर एक नए  दृष्टिकोण  से इस प्रश्न का एक नया उत्तर पाऊँ और अपने इस लघु ज्ञान और लघु अनुभव को एक छोटा सा विस्तार दूँ ।
मैंने तो सिर्फ इतना जाना है की स्वंयम मनुष्य ही एक चलता फिरता दर्शनशास्त्र है इसको अगर जानना है तो
खुद को जानो दूसरों को क्या जानना। जब  खुद के भीतर ही इतने दुवन्द, इतने विवाद है तो दूसरों के द्वंदों और विवादों का समाधान क्यूँ खोजता है पहले खुद के समाधान तो ढूंढ ले। पहले खुद को पहचान तब खुदा को पहचानना ।
दूसरो से या दूसरों की बात क्या करते हो पहले खुद से या खुद की बात कर ले । जिन शास्त्रों के ज्ञान और विधा का तू दंभ और हुंकार भरता है । पर तू तो उन शास्त्रो का  अतिशय अज्ञानी है ।
शास्त्र वचन तो कहते है - विधया ददाती विनयम। (विधया विनम्रता प्रदान करती है।) तो अपनी कटुता का गौरवशाली प्रदर्शन क्यों तू करता है।
दंभ मे कहता तू दर्शन तो मात्र सिद्धांतों का पुलिंदा है पर मैं तुझ से क्या कहूँ खुद को कहता हूँ बिना प्रयोग के, अनुसंरण के दर्शन को सिद्धांतों का पुलिंदा कैसे कह दूँ।

थाम कर हाथों मे कलम की तलवार, बना नम्रता को अपना  ढाल
हो सवार कर्म के रथ पर बना परमात्मा को सारथी अपना
कूद पड़ जीवन के इस महाभारत मे,  बढ़ता चल
रह के विवादो से परे
सोचता था लाऊँगा एक नया तूफ़ान पर क्या लाऊँ
 जब खुद जीवन ही है एक तूफ़ान 
सिर्फ एक आस है हो परमात्मा से मिलन।
 बस यही है इस महामूर्खराज का दर्शनशास्त्र ।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

महामूर्खराज और 3 ईडीयट्स

अभी कुछ ही दिन पहले इस फिल्म को देखने का अवसर मिला मेरे पाठको ये मत कहिएगा की क्या पुरानी बासी खबर ले आए क्योकि भैया मेरे गाँव मे रहता हूँ जहाँ सिनेमाघर का ही अभाव है नई और ताजा फिल्मे कैसे देखूँ। धन्य है वो पाइरेसी करने वाले जिनकी वजह से हम ग्रामीण थोड़ा बहुत मनोरंजन कर पाते है पर फिर भी मैं पाइरेसी के सख्त खिलाफ हूँ । पर इतना तो चलता है ।

अब आते हैं मुद्दे की बात पर इस फिल्म के तीनों पात्रो ओर इस महामूर्खराज मे काफी समतुल्यता है पर उनसे अलग भी हूँ । समतुल्यता तो रेंचो (आमिर खान) के पात्र से अधिक है क्योकि वह फिल्म का मुख्य पात्र था और मैं इस ब्लॉग का ।

फिल्म देख कर बरबस अपने कलकत्ता स्थित पोद्दार छात्र निवास मे बिताये पल याद आ गए। वैसे तो शैक्षणिक योग्यता जो अंको के आधार पर होती है उसमे तो  ठीक अन्य दो पात्र  के समतुल्य था यानि सबसे पीछे पर हरकते रेंचो वाली थी।

कोर्स की किताबे तो कम पढ़ता था फिर भी एम॰ बी॰ ए॰ बनने का ख्वाब देखा करता था । वैसे कुछ न कुछ पढ़ने की आदत तो बचपन से थी उसे इस महानगर मे तो जैसे विशाल पुस्तकालय मे पढ़ने जैसा अवसर मिल गया पर चुकीं विद्यार्थी जीवन था अर्थ (धन)  का सदैव अभाव रहता था। थोड़े-थोड़े  पैसे जमा कर एक आध किताबें खरीद भी लेता था पर उनसे अपने पढ़ने की ललक का शमन नहीं कर पाता था।

अचानक एक दिन लैंडमार्क (अब स्टारमार्क) नामक डिपार्ट्मेंटल स्टोर जो पुस्तकों, संगीत और स्टेशनरी पर आधारित था का पता चला बस फिर क्या था मैं अपने पुस्तक प्रेम वश वहाँ पहुँच गया । वाह वाह ! अब तो मेरे इस  ज्ञान की भूख का शमन हो जाएगा। बस फिर क्या था जब समय मिलता वहाँ पहुँच जाता विषयों के आधार पर करिने से व्यवस्थित और प्रदर्शित किताबों मे से बस अपने पसंद की किताब उठा कर पढ़ने लगता कभी कभार कुछ खरीद भी लेता ताकि मेरी इस मुफ्त मे पढ़ने की आदत पर कोई आपत्ति ना करे ।

नैतिक दृष्टिकोण से तो यह गलत था पाप था पर शास्त्रो मे भी कहा गया है "भूभ्क्षितम किम न करोति पापं" अर्थात भूखा क्या पाप नहीं कर सकता।  भैया मैं भी तो भूखा था ज्ञान का भूखा ।  

मनोविज्ञान, दर्शन, धर्म, विज्ञान, प्रबंधन, और व्यक्तित्व विकास जैसे विषयों को विशेष रुचि के साथ पढ़ा और समझा। इन्होने ही सम्मलित रूप से मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्रदान किया । मैं ने पाया एक एम॰ बी॰ ए॰ का कार्य होता है संसाधनों का यथेष्ट सदुपयोग करना इसके लिए एक डिग्री से अधिक स्वयं की क्षमता की जरूरत होती है (पर पर फिर भी प्रबंधन महाविद्यालयों मे पढ़ाये गए ज्ञान से मदद भी मिलती है और काफी हद तक जरूरी भी )

बरबस मुझे अपना गाँव याद आया वे बेरंग पड़ी पुरखो की वो खेतिहर ज़मीनें जो बस अपने बिकने के इंतजार  मे अश्रुपूर्ण क्रंदन करती नजर आयी जिसके अन्न ने कभी मेरे इस शरीर और मस्तिष्क को सींचा था आज स्वयं जल के अभाव मे सुख कर फट रही थी ।

बस उसी दिन से मैं किसान बन गया जीवन का उद्देश्य हो गया की गाँव जाना है अपने संसाधनों का यथेष्ट सदुपयोग करना है इसमे एक स्वार्थ भी था और एक कमजोरी भी, दर्शन भी, प्रबंधन भी और एक धर्म भी कृषिधर्म।

भैया मेरे सत्य कह रहा हूँ मेरे इस निर्णय पर तो मानो भूचाल आ गया मेरे सखागण और करीबी पारिवारिक सदस्यों ने तो मुझे मूर्ख कहा ही और न जाने क्या क्या भला बुरा कहा । उनके लिए तो मैं जैसे दोयम दर्जे का नागरिक (सेकंड क्लास सिटिज़न) बन गया ।

पर मेरे माता पिता, दादी, बहन आदि का सहयोग प्राप्त हुआ लो इस प्रकार यह महामूर्खराज किसान बन गया ।

हाँ तो मुझ मे और रेंचो मे यह समानता है की दोनों ने अपने दिल की सुनी और अपने उद्देश्य को प्राप्त करने मे सफल रहे । विरोधाभास भी है कहाँ एक प्रबुध वैज्ञानिक रेंचो कहाँ यह महामूर्खराज किसान ।

पर मेरा यह निर्णय मेरे लिए हमेशा खास रहेगा वैसे भी महानगरीय चमक दमक को छोड़ कर ग्राम जीवन अपनाना कोई खेल नहीं

आप इस बारे मे क्या सोचते है यह तो आप पर निर्भर है ।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

चिठ्ठा प्रवचन महामूर्खराज की जुबानी

आओ आओ भाई लोगो बाबा महामूर्खराज के चिठ्ठा सत्संग सभा मे आप लोगों का हार्दिक स्वागत है । आज बाबा मूर्खराज ओह क्षमा कीजिएगा बाबा महामूर्खराज आप लोगो को मूर्खतापूर्ण पर रहस्यों से भीगे हुए प्रवचन देंगे आप लोगो से नम्र निवेदन है की कृपया शांति बनाए रखेगें धन्यवाद ।

महामूर्खराज उवाचः - भक्तो ! आइये हम सब इस धार्मिक और मोक्षदायिनी प्रवचन बेला का शुभारंभ एक जयकारे से करते हैं ,

बोलो भई ! बाबा  महामूर्खराज की जय हो

भक्तो ये संसार ये ब्रहमांड सब असत्य है मानवो द्वारा बनाए गए ये धर्म मार्ग जिनका महिमा मंडन करते हुये , जिसका उद्देश्य  मोक्ष प्राप्ति है बताते हुए चिट्ठाजगत के ये धर्मांध थकते नहीं वो भी असत्य है । तो आप पुछेंगे सत्य  क्या हैं हे मेरे प्रियजनो सिर्फ और सिर्फ मैं ही सत्य हूँ उसके अलावा सब असत्य है क्योकि सत्य तो केवल वर्तमान है न तो भूत ही सत्य है और न ही भविष्य । और मैं ही वर्तमान हूँ अतः मैं ही सत्य हूँ ।

अतः इस  इस सत्य को पहचानने हेतु इस वाक्यों को दोहराइए

 "मैं ही सत्य हूँ ।"  " अहम ब्रहम अस्मि "  अर्थात मैं ही परमात्मा हूँ मैं ही ईश्वर हूँ

हे मेरे मूर्ख पाठको मेरे ऊपर कहे गए इन दिव्य वाक्यो का सभी महान धर्मज्ञाताओं और ज्ञानियों ने बहुत अपमान किया पर हे पाठको

धर्म की विवेचना तो बहुतों ने की पर मर्म तो किसी ने न समझा । जितना इन्होने धर्म -धर्म चिल्लाया अगर उतना ईश्वर - ईश्वर चिल्लाते तो शायद ईश्वर की प्राप्ति भी हो जाती ।

शायद कबीरदास जी ने ठीक ही कहा था

मनका मनका फेरत बीत गया जुग पर मिटा न मन का फेर।

पर इन कथित ज्ञानी लोगों और धर्मान्ध धर्मज्ञाताओं को मेरा जबाब कुछ इस प्रकार से है

जीवन का उद्देश्य ईश्वर से मिलाप है अतः अंततोगत्वा आत्मा परमात्मा मे विलीन होती है और परमात्मा आत्मा मे अर्थात मनुष्य ईश्वर मे विलीन होता है और ईश्वर मनुष्य मे अतः अहम ब्रहम अस्मि

जीवन और मृत्यु के युद्ध और सफलता व विजय के दंभ से सशंकित मेरा मन सत्य के खोज मे भटकता रहा पर जब सत्य से साक्षात्कार हुआ तो घोर आश्चर्य ! सत्य तो आत्मबोध के अलावा कुछ भी नहीं था

और इसी के साथ इस चिठ्ठा प्रवचन का इतिश्री करते हुए आप से आज्ञा चाहूँगा ।

चलो भाई लोगों ज़ोर से जयकरा लगाओ - बाबा महामूर्खराज की जय हो ! जय हो !

नम्र चेतावनी : मेरे मूर्ख पाठको आप से नम्र निवेदन है की मेरी बुद्धि और विवेक पर बिश्वास न करे आखिर मैं महामूर्खराज जो ठहरा अतः अपने बुद्धि और विवेक से काम लीजिएगा ।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

एक क्षमा याचना व एक लघु परिचय

 

तो शुरुआत क्षमा याचना के साथ करता हूँ । आप कहेंगे की भई यह तो आपका पहला पोस्ट है तो आप माफी क्यों माँग रहे है । कारण यह है की उद्देश्य तो इस छिट्ठे की शुरुआत मूर्ख दिवस के शुभ अवसर पर करना चाहता था पर कुछ  वयस्ताओं की वजह से ऐसा नहीं कर पाया । वैसे भी शुरुआत कठिन होती है ।

यह तो हुई क्षमा  याचना की बात अब आते है  लघु परिचय के मुद्दे पर । मेरा नाम मुकुल अग्रवाल है पेशे से एक किसान भी हूँ और एक व्यापारी भी, जीवन के कष्टप्रद 28 बसंत देख चुका हूँ और भगवान ही जाने की कितने देखने अभी  और बाँकी हैं । शैक्षणिक योग्यता तो मात्र स्नातक है पर ईश्वर की कृपा से हर ज्ञान की गंगा मे छोटी-छोटी डुबकियाँ लगा चुका हूँ वो अग्रेजी मे कहते हैं न JACK OF ALL TRADES

मानव मनोविज्ञान, धर्म, मुझे विशेष रूप से आकर्षित करते हैं । यही कारण है की छिठ्ठेकारी की दुनिया मे मैंने प्रवेश किया है । अभी तो कुछ  दिन छिठ्ठो के अध्यन मे बीतेंगे उसके बाद ही कलम चलनी शुरू होगी । बस आपके साथ की जरूरत है उम्मीद है आप सभी पुराने ब्लॉगर इस महामूर्खराज का उचित मार्ग दर्शन करेंगे ।

ॐ शांति पर ये शांति कहीं आने वाले तूफान का संकेत न हो ।